रेल की पटरियों पर पड़े लाश के ये चीथड़े सिर्फ मजदूरों के नहीं बदहाल व्यवस्था के भी हैं

*रेल की पटरियों पर पड़े लाश के ये चीथड़े सिर्फ मजदूरों के नहीं बदहाल व्यवस्था के भी हैं*


08/05/2020  मो रिजवान 


महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे लाइन की “पटरियों” पर पड़े ये “लाश” के “चीथड़े” आपसे सवाल कर रहे हैं,
ये चिथड़े केवल “प्रवासी मजदूरों” के ही नही बल्कि उस “व्यवस्था” के भी हैं जिस व्यवस्था के तहत “मंत्री से लेकर संतरी” तक, डीएम से लेकर कर्मचारी तर्क, व्यापारी से लेकर सहकारी तक, “रसूखदार से लेकर आम नागरिक” तक सभी को “एकसमान” अधिकार हैं। फिर उस व्यवस्था से ये “मजदूर” अलग कैसे?



आज इस महामारी के समय जब पूरे देश मे “तालाबंदी है,
राज्यों की सीमाएं बन्द है।
जिलों की सीमाएं बन्द हैं।
तहसील-तालुके बन्द हैं।
गांव-कस्बे बन्द हैं।
गली-मोहल्ले बन्द हैं।
ऐसे समय इन प्रवासी मजदूरों के लिए व्यवस्था करने का जिम्मा किन लोगों का था?
आखिर क्यों ये मजदूर रेलवे लाइन पर चलने को मजबूर हुए?



पटरी पर पड़ी यह वही “रोटी” है, यह वही “पेट की भूख” है जिसके लिए ये मजदूर कभी 40 मंजिल ऊँची इमारत पर काम करता है, कभी 400 फिट गहरी सुरंग में काम करता है।


कभी 45℃ तापमान में करता है, कभी इन्हीं फटे अधनंगे कपड़ों में -5℃ सर्द मौसम में काम करता है।
कभी 10 फिट गहरे “टट्टी” के बदबूदार “सीवर’ में घुसता है तो कभी 20 फिट ऊंचे बिजली के खम्बे पर चढ़ता है।


और तो और आज जिस पटरी पर इन मजदूरों की “लाश” के चीथड़े पड़े हैं, इन्हीं मजदूरों की देन हैं ये बिछी हुई पटरियां।
पटरी पर बिखरी ये वही “हवाई चप्पल” हैं जिन “हवाई चप्पलों” को पहने ये इस महामारी से बचने के लिए अपने घर-गांव जा रहे थे, यह महामारी इन हवाई चप्पलों से नही बल्कि “हवाई जहाज” की देन है।


आज मजदूरों की जो भी दुर्दशा है, दयनीय है, दुखद है।
“मौत मजदूर” को ले गयी, “रोटी सवाल” छोड़ गईं,,
स्तब्ध हूँ, बस लिखकर गुस्सा जाहिर कर सकता हूँ।


*(ये लेख विमल वरुण के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है)*


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